निकल पड़ा प्रगति-पथ पर, गर्वित मस्तक कंधो पर
विद्या का आवेश, थी उद्धत भाषा जीव्हा पर
भर शून्य दिल में, मसल दिए राह के पत्थर
आंधी सा आवेग, नहीं देखा कभी मुडकर
एक दिन धक कर, तीव्र तापस में बैठ कर सुस्ताया
आकर जीवन ने पीछे से, मेरा कन्धा थपथपाया
हंस कर बोला , पीछे एक बार तो मुड़ कर देख
मूर्ख, तूने आखिर क्या खोया और क्या पाया
तभी एक और अनजान हाथ कंधे पर आया
एक शांत चेहरे ने अपना दर्शन कराया
थामा हाथ , नव जीवन का पथ दिखलाया
होकर शर्मिंदा, अहं ने पहली बार शीश झुकाया
अनजान राहों में, पथिक जब भटक जाते हैं
अनजान चेहरे, आकर क्यों राह दिखाते हैं?
ढूँढ़ता रहता मनुष्य, भगवान् को पथरों में
भगवान् तो अनजान चेहरा बन गले लगाते हैं
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