25
December 2013
मझधार – २
आज नयनों पर आंसू के बादल जो घिर आये
दिन में हो गया अँधेरा, हम कुछ न देख पाये
जाने किस रह पर चल दिए, कदम हमारे डगमगाए
दिल-दिमाग कि हुयी गुफ़तगू , हम कुछ न सुन पाये
बंजर ज़मीन में चले थे हम फूलों के कतार लगाने
सींचते रहे वर्षों खून पसीने से, अंत में कांटे उग आये
नहीं था पता, रेगिस्तानों में बहार नहीं आती है
आती है तो आंधी, जो आंखों में धूल झोंक जाती है
पत्थर से मानव तो राम कथा में हुआ करते हैं
हक़ीक़त में पत्थर पत्थर बन कर ही जिया करते हैं
काश यह सच दिल दिमाग में हमेशा के लिए बस जाए
यह मेरी रगों में, क्रांति का जोश बन कर भर जाए
इन कमज़ोर कदमों से चलने कि नहीं हिम्मत मुझमे
काश यह अहसास मेरे कदमों कि ताकत बन जाए
हे सूर्य कल तुम मुझे अपने पावन प्रकाश से भर दो
थक गया अब मैं, मुझे इस अंधकार से मुक्त कर दो
हे धरती माँ , तुम मुझे अपनी ममता भरी बाहों में भर लो
हे परम पिता, थाम कर हाथ मेरा, मझधार के पार कर दो
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